Blogspot - dilkadarpan.blogspot.com - दिल का दर्पण

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खोटा सिक्का - कविता 19 Aug 2013 | 04:08 pm

प्यार की राह में हमने चाहतें बिछाईं और तुमने शतरंज की बिसात उसके बाद जीत कर भी तुम खुश नहीं हुये कल तलक गलत फ़हमी तुम्हारे साथ थी आज पछतावा है न तुम मेरा बीता कल लौटा पाओगे न तुम किसी का आज बन पाओगे दू...

प्यार की बातें कीजे - गजल 14 Aug 2013 | 10:24 am

न रस्मो-रिवाज न बाजार की बातें कीजे हैं फ़ुर्सत में तो बस प्यार की बातें कीजे वक्त रुकता नहीं किसी  मानो-मिन्नत से ये गुजर जायेगा न टकरार की बातें कीजे बात छोटी है फ़ायदा क्या इसे बढाने से चिलमन से...

तुम्हीं तो मेरा बसन्त हो - कविता 28 Jul 2013 | 03:26 pm

आज तक सींचते रहे अपने प्यार के अमृत से मुझ निर्जीव ठूंठ को तुम और जब कौंपले अंकुरित हुई हैं तब छोड कर जाने लगे हो कैसे रोकूं मैं तुम्हें है नहीं तुम पर कुछ अधिकार विषेश मेरा परन्तु जाते जाते यह भी ...

कोमल बेल या मोढा - कविता 18 Jul 2013 | 10:10 am

इस कविता में लडकियों को ’बेल’ और लडकों को ’मोढा’ शब्द से सम्बोधित किया गया है. ’मोढा’ एक प्रादेशिक शब्द है जिसका अर्थ होता है कोई आवलम्बन या सहारा जो बेल को विकसित करने के लिये उसके पास गाड दिया जाता ...

जीवनदायी मुल्य - कविता 8 Jul 2013 | 12:45 pm

बचपन में जो पढा दो और दो चार एक और एक ग्यारह वह तर्क संगत था परन्तु जीवन में जब वही एक और एक अपने तर्को की सीढी चढ अपना प्रभुत्व जताते हैं कंधे से कंधा मिला चलने वाले हर बात में अपनी टांग अडा...

बस एक ख्याल भर है 8 Jul 2013 | 12:41 pm

ये परिन्दे खुले आसमानों के शाख से कब दिल लगाते हैं सफ़र की थकन दूरे होते ही फ़िर हवाओं में लौट जाते हैं फ़ूल पत्तों से शान गुलशन की घने हरे पेड जान गुलशन की सच फ़िर भी यही सब जाने हैं तिनके घौंसलों में क...

कुल, जाति और वर्ण - कविता 8 Jul 2013 | 12:34 pm

किसके बस में है इस धरा पर अवतरण चयनियत नहीं होते कुल,  जाति या वर्ण भाग्य से मिलते या कहो बंदर बांट से आये नहीं हो उच्च कुल में तुम छांट के क्यूं किसी को हेय बना कर हो लीकते लांछणा के शब्द किसी प...

बिखरती पहचान - कविता 8 Jul 2013 | 12:33 pm

अन्जान सफ़र का था वो राही कौन सी मंजिल थी उसने चाही ये कौन सुझाये कहां से लाये वो कसक वो बैचेनी वो लाचारी या वो आवारापन जो उसकी आदत से हो बाबस्ता उसे रुकने नहीं देता उसे बैठने नहीं देता उसे ...

बदरंग दीवार - कविता 5 Jul 2013 | 04:42 pm

लेटे लेटे जब भी निगाह जाती है सामने सीलन से बदरंग हुई दीवार पर हर एक धब्बे से अलग अलग चेहरे उभरते हैं ऐसा लगता है जैसे मेरा जह्न ही एक पोस्टर बन कर दीवार पर टंगा है इसी खातिर इस दीवार को रंगवाता नही...

ढर्रा सी जिन्दगी - गीत 3 Jul 2013 | 12:43 pm

एक ढर्रा सी तो है बस यह जिन्दगी सुबह हुई नहीं कि फ़िर निकल पडी हजारों सवाल विखरे हैं हर तरफ़ और जबाब ढूंढती फ़िर रही जिन्दगी खुशी के पल मिले जो दो जरा ये होंठ अगर लिये जो मुस्करा कई गुनाह हिस्से में दर्...

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